राजगीर के सभी दर्शनीय स्थल और उनका समृद्ध इतिहास | History of Rajgir Bihar in Hindi

आज का राजगीर और इसका इतिहास

भारतवर्ष के बिहार प्रदेश मे स्थित राजगीर प्राचीन समय से ही बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ है। राजगीर पहाड़ियों से घिरी हुई एक घाटी मे स्थित है। प्राचीन समय में राजगीर को ‘राजगृह’ नाम से जाना जाता था जिसका अर्थ है “राजा का निवास स्थान”।

राजगीर पाँच पहाड़ियों तथा धीमी गति से बहने वाली बान गंगा नदी से घिरा हुआ एक मनोरम शहर है। वर्तमान मे यह भारत के बिहार प्रदेश की राजधानी पटना से 100 कि.मी. की दूरी पर इसके दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित है।

राजगीर, अपनी पत्थरों को काटकर बनाई गयी गुफाओं, बौद्ध अवशेषों, लिपियों, हिन्दू और जैन मंदिरों तथा मुस्लिम स्मारकों के लिए प्रसिद्ध है, राजगृह के चारो तरफ स्थित पहाड़ियां और गुफ़ाएँ, प्राचीनकाल के जडवाडी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर आधिभौतिक उपनिषद के दार्शनिक आचार्यों तक की आवास स्थली रही हैं। राजगीर मगध साम्राज्य की पहली राजधानी थी।

भगवान महावीर, गौतम बुद्ध और संत मखदूम आदि को राजगीर अत्यंत प्रिय था। केवल ज्ञान के उपरांत भगवान महावीर स्वामी की सर्वप्रथम दिव्यध्वनि यहीं विपुलाचल पर्वत पर खिरी थी। यह धर्म और बौद्धिक सक्रियता का एक केंद्र स्थल था। तो आइए, जानते है की आखिर राजगीर इतना क्यों प्रसिद्ध है, राजगीर में क्या-क्या है और राजगीर में आकर के कहाँ-कहाँ घूमा जा सकता है।

राजगीर कहाँ है?

वर्तमान में राजगीर बिहार राज्य के नालंदा जिले के अंतर्गत आता है। राजगीर यातायात के सभी साधनों से जुड़ा हुआ है। यह बिहार की राजधानी पटना से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। भारत के किसी भी कोने से यहाँ बहुत ही आसानी से पहुंचा जा सकता है।

राजगीर का इतिहास

राजगीर का इतिहास अत्यंत ही गौरवशाली रहा है। प्राचीनकाल में राजगीर को अन्य बहुत से नामों से जाना जाता था जिनमें से वसुमती, बारहद्रथपुर, गिरिव्रज, कुशाग्रपुर एवं राजगृह उल्लेखनीय है। रामायण में भी इसका उल्लेख है और वहाँ पर इसे वसुमती कहकर संबोधित किया गया है। ऐसा माना जाता है इसका संबंध पौराणिक राजा वसु से है जो ब्रह्मा जी के पुत्र कहलाये जाते हैं और पारंपरिक तौर पर उनको इस नगर का प्रतिष्ठापक भी माना जाता हैं। महाभारत एवं पुराणों में उल्लिखित इसका ‘बारहद्रथपुर’ नाम राजा बृहदथ की याद दिलाता है जो जरासंध के पूर्वज थे।

चारो तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ होने के कारण यह गिरिव्रज भी कहलाता है। इसका चौथा नाम कुशाग्रपुर का उल्लेख सातवीं सदी के दूसरे चरण मे भारत में आए प्रसिद्ध चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेखों मे तथा कुछ जैन और संस्कृत में लिखी बौद्ध पुस्तकों में पाया जाता है। ह्वेनसांग के अनुसार यह उत्तम श्रेणी के घासों का नगर था क्योंकि उस समय इसके आसपास खुशबुदार घास उगती थी परंतु ऐसा लगता है की इस जगह का नाम कुशाग्रपुर इसके राजा कुशाग्र के नाम पर पड़ा जो बृहद्रथ के बाद राजा बने थे।

परंतु इसका राजगृह या राजाओं का निवास स्थान नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त है क्योंकि यह स्थल कई सदियों तक मगध की राजधानी रही थी। हालाँकि, ह्वेनसांग के अनुसार यह नाम सिर्फ नया राजगृह, जो पहाड़ियों से घिरा क्षेत्र है वहाँ के लिए ही लागू होता है। रामायण में कहा गया है की सृजनकर्त्ता ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने गिरिव्रज नगर की स्थापना की थी। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध से पहले बृहद्रथ ने इस पर अपना कब्जा कर लिया था और अपने नाम पर बृहद्रथ वंश के शासक की स्थापना की थी।

जरासंध जो उस समय अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध था, इसी वंश का वंशज था। जरासंध ने कृष्ण के मामा और मथुरा के राजा कंस के साथ वैवाहिक संबंध जोड़ लिया था। जब श्री कृष्ण ने कंस को उसके पापो की सजा देने के लिए मार डाला तब जरासंध अपनी सेना के साथ रवाना हो गया। इसके बाद श्री कृष्ण के साथी ग्वाल-बालों को मारकर सत्ता हथियाने की कोशिश की मगर उसे भगा दिया गया। इसके बाद श्रीकृष्ण पांडवों के साथ गिरिव्रज गए और श्री कृष्ण के इशारे पर ही गदायुद्ध मे जरासंध को हराकर भीमसेन ने उसे मार डाला।

हालांकी इसके बाद भी जरासंध के वंशज ही यहाँ पर राज्य करते रहें। राजगृह बौद्धधर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। सत्य को खोजने वाले और दूसरे लोगों की तरह ही राजकुमार सिद्धार्थ (बुद्ध) भी संसार त्यागने के बाद मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा से इसी नगर में आए। बुद्ध कई बार इस नगर मे आए और अपने धर्म के प्रचार के लिए लंबे समय तक यहाँ ठहरे। वे इस नगर के कई स्थानों पर ठहरे लेकिन उनके लिए इस नगर का सबसे प्रियस्थल ग्रीधकूट अथवा गिद्ध का शिखर रहा। उन्होने इस नगर और इसके वातावरण की सराहना अनेक बार की है।

जब बुद्ध अपने धर्म का प्रचार कर रहे थे उस समय यहाँ एक नए वंश का शासन देखने को मिलता है, इस वंश के राजा बिंबिसार मगध के सम्राट थे। वह उत्तराखंड के चार महान शक्तिशाली राजाओं मे से एक थे, अन्य तीन कोसल के प्रसेनजीत ,वत्स के उदयन एवं अवन्ती के प्रद्योत थे। यद्यपि बिंबिसार का वंश उतना ऊँचा नहीं था फिर भी अपने पौरुष और राज्य के विस्तार मे वह बाकी तीनों के बराबर था। उसने मगध की विजय यात्रा अनेकों राज्यों पर स्थापित की। उसके अधीन वीर सेनानियों के जत्थे की कूच, अशोक के शासनकाल में जाकर रुकी जब मगध भारत और अफगानिस्तान तक फैले साम्राज्य का केंद्र बना।

बिंबिसार बुद्ध तथा बौद्ध धर्म के प्रति परम श्रद्धालु था। कहा जाता है की उनके बुढ़ापे में उनके पुत्र अजातशत्रु ने उन्हें बंदी बना लिया एवं उनकी हत्या कर दी एवं बाद मे उसने भी बुद्ध की शरण ली और बौद्ध धर्म को अपना लिया। पाँचवी सदी मे भारत की यात्रा करने वाले चीनी तीर्थयात्री फ़ाहियान के अनुसार पहाड़ियों के बाहरी हिस्से में राजगृह नगर का निर्माण अजातशत्रु ने ही किया था। ह्वेनसांग ने भी कुछ हद तक इसका समर्थन किया है। पाली भाषा में लिखी पुस्तकों में कहा गया है की उसने नगर के किलेबंदी की मरम्मत कराई थी क्योंकि अवनति के राजा प्रद्योत द्वारा आक्रमण की आशंका थी।

बाद के पाली विद्वानो मे से एक बुद्धघोस ने कहा है की नगर बाहरी और भीतरी दो हिस्सों में बँटा था। नगर के चारों तरफ 32 बड़े व 64 छोटे द्वार थे। इस जगह की जनसंख्या 18 करोड़ बताई गयी है जो नगर के बाहरी और भीतरी हिस्से में बराबर की संख्या में बाँटी गयी थी- यह स्पष्टतया अतिशयोक्ति है। बुद्ध की मृत्यु के बाद अजातशत्रु ने उनके अवशेषों में से अपने हिस्से के लाकर उस पर एक स्तूप का निर्माण किया। कुछ महीनो के उपरांत जब अग्रणी बौद्ध भिक्षुओं ने बुद्ध के उपदेशों की शिक्षा देने के उद्देश्य से एक मंडली बनाने के लिए एक सभा बुलाई तब अजातशत्रु ने इस मकसद के लिए सप्तपर्णी गुफा के सामने निर्मित एक खास विशाल हॉल में उन लोगो को ठहरने का प्रबंध किया।

अजातशत्रु के वारिस उदयीन ने अपनी राजधानी राजगृह से हटाकर पाटलीपुत्र मे स्थापित की। ऐसा संभवतः यहाँ से बहती नदी द्वारा संचार व्यवस्था की सुविधा को ध्यान में रखकर ऐसा किया गया था। इस समय से ही राजगृह की महत्ता घटने लगी थी हालाँकि  राजगीर पुराणों में कहा गया है की यह शिशुनाग द्वारा एक बार फिर मगध की राजधानी बनाई गयी थी। बाद के राजाओं ने पाटलीपुत्र को ही अपनी राजधानी बनाया।

परंतु अशोक द्वारा इस स्थान पर एक स्तूप और एक स्तम्भ का निर्माण इस बात को सिद्ध करता है की ईसा पूर्व तीसरी सदी में भी इस स्थान का महत्व बिल्कुल खत्म नहीं हुआ था। राजगीर सिर्फ बुद्ध के प्रिय स्थान के रूप में, एवं उनके जीवन की विभिन्न घटनाओं से संबन्धित होने के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है बल्कि जैन धर्मावलम्बियों ने भी समान रूप से इसका आदर किया है। जैनग्रन्थों मे कहा गया है की उनके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने अपने 32 वर्ष के सन्यासी जीवन के 14 वर्षो का बरसाती मौसम (चौमासा) राजगीर और नालंदा में ही बिताया था।

राजगृह के अनेक धनी व्यक्ति उनके समर्थक रहे हैं, जैन ग्रन्थों में भी बिंबिसार एवं अजातशत्रु का वर्णन है (उनके धर्मग्रंथो में श्रेणिक और कुनिक नाम उल्लिखित) वे भी इन्हें अपने धर्म के समर्थक के रूप में मानतें है। राजगृह में ही 20वें तीर्थकर मुनिसुव्रत नाथ जी का जन्म हुआ था। यहीं विपुलाचल नामक पहाड़ी पर ही भगवान महावीर स्वामी ने केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद अपना प्रथम उपदेश दिया था। 72 फीट ऊँचा समोशरन मंदिर इस पवित्र घटना के संस्मरण में बना है।

भगवान महावीर के सभी 11 प्रमुख शिष्यों या गणधरों की मृत्यु (मोक्ष) राजगृह के ही किसी न किसी पहाड़ के शिखर पर हुई है। माना जाता है अशोक (ईसा पूर्व तीसरी सदी) की मृत्यु भी इन्ही पहाड़ों की किसी चोटी पर हुई थी और यहाँ उसका स्तूप भी बना हुआ है।

जैन और बौद्ध साहित्यों में राजगीर का वर्णन घनी आबादी वाले समृद्ध और मनोरम नगर के रूप में किया गया है। बुद्ध के शिष्य आनंद के अनुसार यह जगह उसके प्रभु के महापरिनिर्वाण के लिए उपयुक्त स्थान है। इन साहित्यों में भगवान बुद्ध एवं महावीर स्वामी के जीवन की असंख्य घटनाओं से इस जगह के भिन्न-भिन्न स्थलों को जोड़ा गया है लेकिन उनमें से अधिकतर जगहों को संतोषजनक रूप से पहचानना मुश्किल है।

बौद्धमठ जैसी संस्थाओं की धारणा का जन्म राजगीर में ही हुआ जो आगे चलकर शानदार शैक्षणिक और धार्मिक केन्द्रों के रूप में विकसित हुई और कई अनुशासित और विद्वान सन्यासियों को उत्पन्न किया। राजगीर में ही भगवान बुद्ध ने अपने सन्यासियों को गीत गाने एवं सुनने के लिए मना किया, नहाने के समय उन्हें अपने शरीर मलने, बाल बढ़ाने, गले या कमर में किसी प्रकार का धागा पहनने या बांधने की भी मनाही थी।

उन्हे किसी प्रकार के चमत्कार प्रदर्शन करने से भी मना कर दिया गया था। वर्तमान में इस जगह का बहुत धार्मिक महत्व है खासकर जैन संप्रदाय में जिन्होने अपने उच्चतम लगाव के कारण लगभग हर पहाड़ की चोटी पर एक-एक मंदिर बना दिया है। हालाँकि, ये अपने प्राचीनता के बारे में दावा नहीं करते मगर भारत के दूर-दूर के क्षेत्रों से तीर्थयात्री इनके दर्शन के लिए आते हैं।

राजगीर को चारों तरफ से घेरकर रखने वाले पहाड़ो की संख्या 5 हैं। इनके नाम अलग-अलग पुस्तकों में अलग-अलग हैं, उदाहरण के लिए महाभारत में इनका नाम हैं, वैभर, वराह, वृषभ, ऋषिगिरी, और चैत्यक हालाँकि  इसी ग्रंथ मे दूसरी जगह पर इनके नाम इस प्रकार हैं, पंडार, विपुल, वराहक, चैत्यक, और मातंग। पाली ग्रंथो में इसके नाम कुछ और ही है वैभर, पांडव, वैपुल्य, ग्रीधकूत और राशीगिरी। वर्तमान में इनके नाम हैं, वैभारगिरि, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरि और स्वर्णगिरि, इनकी उत्पत्ति जैनों से हुई है।

वृत्ताकार दीवार अथवा बाहरी किलाबंदी

पुराने राजगृह के बाहरी दीवारें जो लंबाई मे लगभग 40-80 कि.मी. तक पहाड़ी की ऊँचाई के, साथ-साथ विस्तृत हैं, राजगीर के प्राचीनतम खंडहरों में से एक है। यह मौर्यकाल से भी पहले की है। दीवार के पहले भाग में 3-5 फुट तक लंबे विशाल बिना तराशे पत्थरों को सावधानी से जोड़ा गया हैं जबकी उनके बीच की दरारों को छोटे एवं कम सावधानी से काटे गए पत्थरों एवं रोड़ियो से भरा गया है।

पूरे पत्थर के ढाँचे में कहीं भी सीमेंट या उसका सम्मिश्रण दिखाई नहीं देता। बानगंगा सुरंग के पूरब एवं पश्चिम में किले के दीवारों की ऊँचाई सबसे अधिक है जो लगभग 11-12 फुट तक है। बाकी सोनगिरि, वैभारगिरि, विपुलगिरि एवं रत्नागिरी की दीवारें काफी घिस गयी हैं और शायद ही 7-8 फुट से ज्यादा ऊँची हों।

किले की दीवारों की चौड़ाई अलग-अलग पहाड़ों में थोड़ी बहुत भिन्न है मगर आमतौर पर इसकी चौड़ाई 17‘6’ है। किलेबंदी में जो खासियत नजर आती है वह है बाहरी दीवारों पर आवश्यकता के अनुसार बने बुर्ज। ये ठोस चौकोर संरचनाए हैं जो दीवारों की तरह से ही बनाई गयी है और इनके बीच की दूरी अनियमित है।

पुराने शहर की चारदीवारी की खासियत इसके भीतरी भाग में बनी सीढ़ियाँ या ढाल हैं जिनके जरिये चारदीवारी पर चढ़ा जा सकता हैं, जो अनियमित दूरियों पर बने हैं। शहर की बाहरी दीवार के मुख्य द्वारों में से केवल एक का ही अवशेष देखने को मिलता है जो नगर के उत्तरीभाग में स्थित है। पालीभाषा की पुस्तकों में इस नगर के 32 मुख्य द्वारों तथा 64 छोटे द्वारों का उल्लेख है। इनमें से एक निस्संदेह रूप से बानगंगा और दूसरा गिर्यक घाटी की तरफ होगा। इनके अवशेष अब भी विद्यमान है खासकर राजगीर से गया की ओर जाने वाले रास्ते पर।

नगर की भीतरी दीवार

मनियार मठ से लगभग 2 कि.मी. की दूरी पर नगर की भीतरी दीवार पर एक दरार हैं, पुराने राजगृह की भीतरी दीवार पर एक दरार है जो शायद पुराने समय में प्रवेश द्वार था। इस द्वार से निकला मार्ग बानगंगा की तरफ जाता है।

यहाँ की दीवार पर चढ़ने से पर्यटकों को दक्षिणपूर्वी दिशा में पुराने शहर की बाहरी दीवार दिखाई देती है जो तुलना में ऊँची-ऊँची झड़ियों और बाँस के जंगलों से ढकी हुई उदयगिरि की तराई से दक्षिण पूर्वी घाटी तक विस्तृत है और घाटी के लगभग मध्य भाग (जहाँ शहर की भीतरी दीवार अर्द्ध-चंद्राकृति में मुड़ती है) में भीतरी दीवार से जुड़ जाती है बीच में सिर्फ एक संकरी सी नहर छूट जाती है इसके बाद थोड़ा सा मुड़कर पूर्व दिशा की ओर लगभग 1 मील की दूरी तय करती है, पुनः उत्तर दिशा में एक तेज घुमाव के बाद यह छत्तगिरी तक पहुँचती है जहाँ दीवार खत्म होती है।

आगे 6 मीटर चौड़ी एक प्राचीन सड़क दूर से दिखाई देने वाले शिखर के नजदीक जाकर खत्म होती है। अब हम इस सड़क के इतिहास पर नजर डालेंगे।

ऊपर लिखे निर्देशों के अनुसार छत्तगिरि की तराई तक पहुँचना मुश्किल है, लेकिन पूर्व से पश्चिम दिशा की तरफ जाने वाला एक आसान रास्ता बना है जो भीतरी शहर के दक्षिण पूर्वी द्वार से लगभग 6 मी. उत्तर की दिशा में है। इस रास्ते से जंगल में होते हुए हम एक नहर पर पहुँचते है जहाँ एक आधुनिक पुल तैयार किया गया है जो बिल्कुल उसी स्थान पर हैं जहाँ पुराने जमाने मे एक पुल होता था जिसके अवशेष इस आधुनिक पुल के नीचे अभी तक देखने को मिलते हैं।

नहर के पश्चिमी तट के भीतरी शहर के पूर्वी दरवाजे का अवशेष मौजद हैं। इस प्रवेश द्वार की उत्तर दिशा में लगभग 100 मी. की दूरी पर भीतरी दीवार पर एक संरचना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इसका मकसद क्या है उसका पता नहीं लग पाया है संभवतः यह जगह एक स्तूप के निर्माण के लिए छोड़ दी गयी थी ।

राजगीर के दर्शनीय स्थल

राजगीर अपने दर्शनीय स्थलों और गौरवशाली इतिहास के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। राजगीर में अनेकों घूमने की जगहें है जिनके बारे में नीचे विस्तार से वर्णन किया गया है।

वेणुवन

वेणुवन या बाँस का जंगल भगवान बुद्ध की तपस्थली है। यह एक राजकीय उद्यान है। यह स्थल, भगवान बुद्ध के भक्तगण आसानी से उनके दर्शन पा सकें इस उद्देश्य से भगवान बुद्ध को भेंट किया गया था। यह बौद्ध धर्म की पहली संपत्ति थी और भगवान बुद्ध के प्रिय आवास स्थलों में से एक था। यह मठ बनाने के लिए आदर्श जगह थी, शहर के बहुत पास न होने के कारण यहाँ दिन-रात शांति रहती थी, यहाँ काटने वाले कीड़े-मकोड़े भी नहीं थे, यहाँ मंद-मंद हवा चलती थी और ठंडे पानी के तालाब भी थे।

अतः ध्यान लगाने के लिए यह एक आदर्श जगह थी और बुद्धत्व प्राप्ति के बाद शाक्यमुनि ने अपना पहला बरसात का मौसम यहीं गुजारा था। राजा बिंबिसार, बुद्धत्त्व प्राप्ति के बहुत पहले से ही भगवान बुद्ध के मधुर व्यवहार के प्रति आकृष्ट हुए जबकि वह एक आदर्श गुरु की खोज में राजगीर का चक्कर लगा रहे थे। इस राजकुमार को राजा ने धन दौलत का लालच दिखाया परंतु भविष्य में बुद्धत्त्व प्राप्त करने वाले राजकुमार ने जब उन सारी वस्तुओं को ठुकरा दिया तब राजा ने बुद्धत्त्व प्राप्त के बाद पुनः उसने राजगीर आने की गुजारिश की।

बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित होकर राजा ने यह धर्म स्वीकार कर लिया। ऐसी मान्यता है की वे जैन धर्म द्वारा भी बराबर प्रभावित हुए और बिंबिसार तथा अजातशत्रु जैन धर्म में धर्मांतरित हो गए। कहते हैं की भगवान महावीर स्वामी के प्रभाव ने तो बिंबिसार की 13 रानियों तथा 23 पुत्रों को भी जैनधर्म में धर्मान्तरित कर दिया था। आजकल, नया वेणुवन विहार, अजात शत्रु द्वारा भगवान बुद्ध के अवशेषों पर बनाया गया स्तूप के क्षेत्र से चिन्हित होता है।

वर्तमान मे वेणुवन विहार नामक उद्यान जो कुंड क्षेत्र में है वह सुंदर तालाब के चारो ओर विकसित किया गया है। इनमें से एक ओर भगवान बुद्ध की भव्य प्रतिमा दर्शनीय है। यहाँ प्राकृतिक वातावरण में अभ्यारण्य स्थल भी विकसित है। बाँस के जंगल के मध्य प्रातः भ्रमण का अच्छा प्रबंध है। इसी में स्थित है जापानी मंदिर।

जापानी मंदिर

वेणुवन के पास ही विरायतन रोड पर स्थित इस जापानी मंदिर में भगवान बुद्ध की श्वेत वर्ण की भव्य प्रतिमा देखी जा सकती है जो मुख्य मंदिर के बाहर एक प्रांगण में स्थित है। जापान के बौद्ध संघ द्वारा बनवाए गए इस मंदिर में भगवान बुद्ध के प्रिय शिष्य सारिपुत्र सहित अनेक भव्य जनों के दर्शन होते हैं। यह मंदिर बहुत विशाल है तथा पहाड़ों से इसका सुंदर दृश्य देखने को मिलता है।

करंडा तालाब

आधुनिक मंदिरो मस्जिदों से लगभग 150 मीटर की दूरी पर उष्ण-झरनों के पास फुटपाथ के दाहिनी ओर एक विशाल तालाब है। इसे चीनी तीर्थ यात्रियों द्वारा करंडा तालाब के रूप में चिन्हित किया गया है। इस तालाब का जिक्र पाली भाषा और संस्कृत के कुछ ग्रन्थों ‘कलंदनिवप’ अथवा करंड-कनीवप के रूप में किया गया है, जिसमे भगवान बुद्ध नहाते थे।

विरायतन

वेणुवन से कुछ दूरी पर विरायतन नामक जैन आश्रम है जहाँ आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित आवासग्रह और एक संग्रहालय है। विरायतन की स्थापना वर्ष 1973 में उपाध्याय श्री अमर मुनि जी महाराज की प्रेरणा से की गयी थी। यह भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत आने वाले प्राचीन राजगीर नगर के बाहरी क्षेत्र में वैभवगिरि नामक पहाड़ के के निचले भाग में स्थित है तथा 40 एकड़ भूमि पर विस्तृत है यह क्षेत्र अपनी ऐतिहासिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है जो बौद्ध धर्म-जैन धर्म और वैदिक धर्म का संगम स्थल मानी जाती है।

आज विरायतन ज्ञान दान व जैन संस्कृति की रक्षा के साथ-साथ सामाजिक कार्य भी कर रहा है। यहां ज्ञानंजली में 20,000 से भी अधिक ग्रंथ संग्रहित है। यहां श्री ब्राह्मी कला मंदिरम में हस्तकला से निर्मित शिल्प से जैन तीर्थकरों के जीवन दर्शन को दर्शाया गया है।

पिछले अनेक वर्षों में वीरायतन ने लाखों रोगियों को मुफ्त इलाज प्रदान किया है। यह बहुत ही साफ सुथरा, रोशनी और हवादार जगह है जिसके चारों तरफ गुलाब के बगीचे हैं। प्राथमिक रोग विभाग परीक्षण, (pathological tests), चश्में, दवाइयाँ और पौष्टिक आहार मुफ्त में दिया जाता है।

यहाँ नेत्र ज्योति सेवा मंदिरम व पोलियो अस्पताल के माध्यम से लाखो लोगो की आंखों के देखभाल के अतिरिक्त इस अस्पताल में हड्डियों के लिए दवाखाना और महीने में कई बार पोलियो की बीमारी के लिए शिविर का आयोजन किया जाता है जहाँ रोगियों को कृत्रिम अंग मुफ्त में मुहैया कराये जाते हैं। विरायतन ने शिक्षा तथा कपड़े प्रदान करने का भी निश्चय किया है। लछुवाड़ व पावापुरी नामक स्थलों में ऐसे समुदाय को शिक्षा प्रदान करने का व्रत विरायतन ने लिया है जिन समुदाय के लोग पुश्तों से अनपढ़ रहें।

तापदा अथवा गर्म झरने व कुंड

पहले और पांचवे पहाड़ की तलहटी में स्थित गर्मजल के प्राकृतिक झरने और कुंड स्वास्थ्यवर्धक तो है ही इनका धार्मिक महत्व भी बहुत है। महाभारत में राजगृह के इन उष्ण झरनों को तापदा कहा गया है। पौराणिक कहानियों में इसे ब्रह्मा के ताप के रूप में उल्लेख किया गया है। बौद्ध साहित्य में राजगृह की मुख्य नदी का नाम तापदा बताया गया है जिसके पानी का रूख बदल कर राजा के लिए एक सरोवर का निर्माण किया गया।

शास्त्रकारों ने राजगीर की सरस्वती नदी को पवित्रतम बताया है। वायुपुराण के अनुसार इस नदी में एक बार नहाने का पुण्य गंगा नदी में एक साल नहाने के पुण्य के बराबर हैं। आधुनिक काल में राजगीर अपने असंख्य उष्ण झरनों व कुंडों (जो वैभार पहाड़ के निचले हिस्से में हैं) के लिए प्रसिद्ध है। ये केवल तीर्थयात्री और पर्यटकों को ही नहीं बल्कि बीमार और अपाहिजो को भी अपनी ओर आकृष्ट करते हैं।

उष्ण झरने लक्ष्मीनारायण मंदिर परिसर का एक हिस्सा है। यहाँ महिलाओं और पुरूषों के लिए अलग-अलग स्नानगृह हैं, सप्तधारा या सात झरनों में से आता है जिनका स्त्रोत ऊपर पहाड़ी पर स्थित सप्तपर्णी गुफाएँ मानी जाती हैं। इन झरनो में सबसे अधिक गरम पानी ब्रह्माकुंडी का है जहाँ पानी 45 सेन्टीग्रेड तापमान में निकलता है। गुरु नानक देव ने भी अपनी प्रचार यात्रा के दौरान इनमें से किसी झरने में स्नान किया था। गुरुद्वारें में भी गंधक के तापद कुंड है जो शीतल कुण्ड के नाम से जाने जाते हैं।

बहुत सारे लोग यह जानना चाहते है की राजगीर कुंड में गर्म पानी कहां से आता है तो ऐसा माना जाता है की यहाँ गर्म पानी सप्तकर्णी गुफाओं से आता है। वैभवगिरी पर्वत के भेलवाडोव तालाब का जल पर्वत से होते हुए यहाँ पर आता है। पर्वत में बहुत से केमिकल्स जैसे सल्फर, सोडियम, गंधक आदि मौजूद हैं। इन्ही केमिकल्स की वजह से राजगीर कुंड का पानी गर्म रहता है।

पिप्पली गुफा पत्थर का घर

वैभार पहाड़ के पूर्वी ढाल पर पाली साहित्य की प्रसिद्ध पिप्पली गुफा है। इसका नाम पिप्पली गुफा इसलिए पड़ा क्योंकि इसके प्रवेश द्वार पर एक पवित्र पीपल का पेड़ है, कभी-कभी मध्यान्ह भोजन के उपरांत भगवान बुद्ध इस गुफा में ध्यानमग्न होते थे। अगर कोई इस पहाड़ी पर चढ़कर देखे तो उसे चारों ओर भिन्न-भिन्न रंगों का समावेश देखने को मिलता है। ये तरह-तरह के अन्न के खेतों के ही दृश्य है। यह मनोरम दृश्य भगवान बुद्ध को भी बहुत प्रिय थे,और वे कभी भी ऐसे मौकों का आनंद लेने से नहीं चूकते थे।

उन्होने अपने शिष्य आनंद को खासकर वैभार गिरि के शिखर से इस मनोरम दृश्य का आनंद लेने के लिए उपदेश भी दिये। अब इस पर्वत पर जैन मंदिरों की भरमार है। राजगीर का हिन्दू मंदिर भी देखने योग्य है तथा सप्तपर्णी गुफाएँ भी इसी पर्वत पर हैं। पिप्पली गुफा चौकोर आकृति की संरचना है जिसका आधार 25.9×24.7 मी. और उपरिभाग 24.8×24 मी. है, इसकी ऊँचाई 6-8 मीटर है।

यह बिना तराशे विशाल पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर बनाई गयी है। पत्थरों को जोड़ने के लिए किसी प्रकार की सीमेंट आदि का प्रयोग नहीं किया गया है। इसके आधार के चारों ओर छोटी-छोटी अनियमित आकार की कोठरियाँ बनी हुई है। ऐसा लगता है की इसकी दीवारों पर बनी इन कृत्रिम कोठरियों के कारण ही इसका नाम गुफा (गुहा) पड़ा और यह देखने में भी गुफा जैसी दिखाई पड़ती है। इस संरचना के ऊपर पाँच मुस्लिम कब्र है जिनमें से चार ईटों से बने चबूतरे पर है और एक इसके दक्षिणी दिशा में है।

कुछ पाली ग्रन्थों में पिप्पली गुफा को महाकश्यप, जो प्रथम बौद्ध महासभा के सभापति थे, का निवास कहा गया है। कहा जाता है की एक बार जब महाकश्यप अत्यंत शारीरिक व मानसिक तकलीफ से पीड़ित थे तब भगवान बुद्ध स्वयं उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर आए थे। ह्वेनसांग के अनुसार इस गृह की दीवारों के पीछे एक गहरी गुफा थी जिसमें असुर रहते थे। वर्ष 1895 तक यहाँ एक गहरी प्राकृतिक गुफा जिसकी छ्त टूट कर गिर गयी थी, देखी जा सकती थी।

सप्तपर्णी गुफाएँ

पिप्पली गुफा से एक पहाड़ी रास्ता सप्तपर्णी गुफाओं को जाता है। पहाड़ की चोटी पर महादेव जी का मंदिर है और आगे जाकर आदिनाथ जी का एक विशाल आधुनिक जैन मंदिर है। इस मंदिर में भगवान आदिनाथ जी की श्वेतवर्ण प्रतिमा के साथ-साथ उनके चरण चिन्हों के भी दर्शन होते है।

मंदिर के पूर्व में कुछ मीटर की दूरी पर एक छोटा सा पवित्र स्थल है जिसके पीछे दाहिनी ओर के नतोन्नत पहाड़ी जंगल के बीच में से एक संकरी पगडंडी नीचे की तरफ जाती है जो मंदिर से लगभग 30 फीट नीचे है और यह रास्ता अर्धवृताकार में बने एक प्रांगण में खत्म होता है जिसके सामने 6 गुफाएँ एक पंक्ति में बनी है। इस रास्ते का कुछ हिस्सा पत्थरों को चुनकर बनाया गया है और देखने में मेढ़ जैसी लगती है इसकी चौड़ाई 1.82 मी. है। इनमें से चार गुफाएँ भली भाँति सुरक्षित हैं।

गुफाओं के सामने का प्रांगण पूर्व में 36.57 मी. लंबा और 10.36 मी. चौड़ा है, पश्चिम में इसकी चौड़ाई 3.65 मी. है। प्रांगण के बाहरी छोर की दीवार बिना तराशे पत्थरों को एक के ऊपर दूसरे पत्थर को रखकर बनाई गयी है। उनको जोड़ने में किसी प्रकार के सीमेंट जैसी चीज का इस्तेमाल नहीं किया गया है लेकिन इसका थोड़ा सा ही हिस्सा जो लगभग 5 मी. लंबा और 2.5 मी. ऊँचा है अवशिष्ट है।

यह जगह पाली और संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख की गयी सप्तपर्णी गुफाओं से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, बुद्ध के देहांत के लगभग 6 महीनों के बाद उनके उपदेशों की आचार संहिता बनाने के मकसद से प्रथम बौद्ध महासभा का आयोजन इसी जगह पर किया गया था इसमें पाँच सौ बौद्ध सन्यासियों ने भाग लिया था।

महादेव मंदिर

इसमें एक छोटा सा गर्भगृह है जिसका अंदरूनी हिस्सा लगभग 3.5 वर्ग मी. का है। मंदिर की छत समान है और इसमें एक छोटा सा शिवलिंग, एक मस्तक हीन साँड और एक छोटा सा शिखर है। दरवाजे पर दो नारी मूर्तियाँ बनी हैं और पत्थर पर फूल पत्तियों के नमूने बने हैं। इस गर्भगृह के सामने मूलतः एक मंडप बना है जिसमें ग्रेनाइट पत्थर से बने स्तंभों की 6 पंक्तियाँ हैं हर पंक्ति में पाँच -पाँच स्तम्भ हैं जो अब भी बरकरार हैं।

इनकी चारदीवारी बाद की संरचना है जो इन स्तंभों की सुरक्षा के लिए बनाई गयी थी। ये दो अलग-अलग काल की संरचनाएं है जिनमें से पहला निर्माण मोल्डिंग द्वारा बना है जबकि बाद का निर्माण या मरम्मत में किसी प्रकार की वास्तुकला दिखाई नहीं देती है। बाद में बनी दीवार मूल दीवार के पूरब की ओर लगभग 8 मी. आगे बढ़ी हुई है और इस प्रकार अतिरिक्त जगह को मलबे और मिट्टी से भर दिया गया है। साथ ही दरवाजे की चौड़ाई 3.65 मीटर से घटकर 1.2 मीटर रह गयी है, मूल द्वार अब भी दो स्तंभों के जरिये साफ नजर आता है जिसे बाद में ईंट से चुनाई कर दी गयी थी।

जैन मंदिर

राजगीर अति प्राचीनकाल से ही जैन तीर्थ है। यहां काफी समय से जैन अनुयायी अपने इष्ट देव के दर्शन अर्चन करते रहे हैं। यहीं जैन धर्म के 20वें तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ जी के 4 कल्याणक हुए, यहीं 24 में से 23 तीर्थकरों के समवसरण आए है। यही वह स्थान है जहां उनके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी की केवल ज्ञान के उपरांत प्रथम बार दिव्यध्वनि खिरी थी। इतने पवित्र स्थान पर अनेक जैन मंदिर होना स्वाभाविक ही है अतः राजगीर के चारों ओर के पहाड़ों पर दूर-दूर लगभग 26 जैन मंदिर विपुलाचल, रत्नागिरी, उदयगिरि, स्वर्णगिरि व वैभारगिरी आदि पाँच पहाड़ियों पर स्थित है। इन पाँच पहाड़ों के कारण ही यह पंच पहाड़ी के नाम से जाना जाता है।

यहां स्थित विपुलाचल पर्वत पर ही महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि खिरी थी। पहले पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध इस पर्वत की तलहटी में महावीर उद्यान में एक मानस्तम्भ है जहां से 550 सीढ़ियों के उपरांत आती है भगवान महावीर स्वामी की प्रथम देशना स्थली। यहां श्वेतांबर जैन मंदिर के साथ-साथ 4 दिगंबर जैन मंदिर व एक समव्श्रन मंदिर है इस समव्श्रन मंदिर में भगवान महावीर स्वामी के जीवन पर आधारित चित्रकला प्रदर्शनी भी देखी जा सकती है।

रत्नागिरी नाम का पहाड़ दूसरा पहाड़ कहलाता है यही वह स्थान है जहां 20वें तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रत जी के तप व ज्ञान कल्याणक हुए थे। पहले पहाड़ के पीछे से ही इस पहाड़ पर रास्ता निकलता है। यहां 3 दिगंबर जैन मंदिर व श्वेतांबर मंदिर है। इस पर्वत पर 1292 सीढ़ियाँ है। उदयगिरि नामक पर्वत तीसरा पहाड़ है यहां अनेक तीर्थकरों के समव्श्रन आए है। पर्वत पर एक दिगंबर मंदिर व श्वेतांबर मंदिर है। यहाँ एक प्राचीन मंदिर भी ध्वस्त में है। पर्वत पर जाने के लिए 752 सीढ़ियाँ बनी हुई है।

चौथा पहाड़ स्वर्णगिरि कहलाता है। यहां 1064 सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद करोड़ों मुनियों की निर्वाण भूमि पर पहुँच जाता है। यहां तीन दिगंबर मंदिर व श्वेतांबर मंदिर है। लेकिन काफी समय से यह पहाड़ सुरक्षा कारणों से बंद है तथा अब वहाँ कुछ नहीं है।

वैभारगिरि 5वां पहाड़ 23 तीर्थकरों की समवश्र्न स्थली है। यहाँ एक दिगंबर जैन मंदिर के अतिरिक्त श्वेतांबर मंदिर भी है। यहाँ प्राचीन ध्वस्त तीन चौबीसी मंदिर भी देखा जा सकता है। इस पर्वत पर जैन मंदिरो के अतिरिक्त बौद्ध गुफाएँ व हिन्दू मंदिर भी है।

पर्वत वंदना के अलावा नीचे तलहटी में भी जैन मंदिर है। कार्यालय मंदिर इसमे कुल तीन वेदियाँ है। मंदिर में नंदीश्वर द्वीप की रचना के साथ-साथ पद्मावती माताजी की चमत्कारी मूर्ति व क्षेत्रपाल बाबा भी विराजमान है। मंदिर के सामने मुख्य सड़क के दूसरी ओर एक और मंदिर है जो लाल मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसमें पाँच वेदियों में अनेक तीर्थकरो के दर्शन होते है। इस मंदिर के बाहर कमल मंदिर का निर्माण भी गननी प्रमुख ज्ञानमति माताजी की प्रेरणा से हुआ है। इसमें भगवान मुनिसुव्रत नाथ जी का खरगासन प्रतिमा है। श्री दिगंबर जैन सरस्वती भवन इसमें विशाल पुस्तकालय, शास्त्र भंडार व चित्रकला प्रदर्शनी देखि जा सकती है। इन दिगंबर जैन मंदिरों के अतिरिक्त एक श्वेतांबर जैन मंदिर नवलखा मंदिर भी है।

मनियार मठ

यह बेलनाकार एक मंदिर है जो राजगृह के देवता मणि नाग के निवास स्थान के उद्देश्य से बनाया गया था। वैदिक धर्म के बाहर प्रचलित जनजातियों के धार्मिक आचारों की एक खासियत थी सर्प-पूजन यह इसी के लिए बनाया गया था। राजगृह इस आदि धर्म का भी तीर्थ स्थल रहा है। मगध के लोग नागों को उदार देवता मानते थे जिन्हें पूजन आदि द्वारा संतुष्ट करने पर वे वर्षा प्रदान करते थे। यहाँ की खुदाई मे ऐसे बहुत से पात्र निकले हैं जिनमें साँप के फन की आकृति के कई नलके बने हैं संभवतः इन पात्रों से साँपो को दूध चढ़ाया जाता था।

विशाल गड्ढों में जानवरों के कंकाल भी मिले हैं जिन्हें देखकर लगता है की शायद इस जगह पर बलि भी हुआ करती थी। कुछ लोगो का कहना है की यह स्थल मगध सम्राज्ञी रानी चेलना का स्नानागार (कूप) था। वास्तव में उपस्थित देवताओं के संप्रभुत्व की वजह राजगृह के बारे में बौद्ध-कथाओं में इस जगह की एक नकारात्मक छवि भी उभर कर आती है जिससे राजगृह में पधारने पर भेंट चढ़ानेवाली बात की वजह समझ में आती है।

सोनभंडार गुफाएँ (स्वर्णभंडार)

मनियार मठ के उत्तर पश्चिम दिशा में गुफाएँ स्थित है जो सोनभंडार या स्वर्णभंडार गुफाओं के नाम से जानी जाती हैं। वैभार पहाड़ की खुदाई से निकली सोन भंडार गुफाओं का निर्माण जैन सन्यासी वैरदेव ने करवाया था। यह रेलवे स्टेशन से लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर स्थित हैं। ऐसा माना जाता है की यहाँ अभी तक मगध सम्राट राजा श्रेणिक का सोना व अन्य खजाना छिपा है। इनमें जैन तीर्थकरों के भित्ति चित्र भी देखे जा सकते है।

यहां शिलाओं पर शिलालेख अंकित हैं। कहा जाता है की जो कोई इन शिलालेखों के संकेतों को समझ पाएगा वह सोने के खजाने के दरवाजे को खोल सकेगा।जिस पहाड़ की खुदाई से इन गुफाओं का आविष्कार हुआ है वे खुदाई के उपयुक्त पहाड़ नहीं थे अतः एक गुफा की छत पूरी तरह से ढह गयी है और दूसरे की दीवारों तथा छत पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी है। पश्चिमी गुफा की दक्षिणी दीवार पर एक दरवाजा तथा खिड़की है। दरवाजे का निचला भाग उपरिभाग से 15 से.मी. अधिक चौड़ा है।

गुफा के दीवारें 1.82 मी. की ऊँचाई तक बिल्कुल सीधी हैं परंतु इसके बाद अंदर की तरफ आगे बढ़ी हुई हैं जो आगे 1.52 मी. ऊँची हैं और इस तरह से यह एक तहखानें जैसी संरचना है दीवारों के अंदरूनी भाग में दरवाजे के किनारे तथा सामने के दीवार पर कुछ शिलालेख उत्कीर्ण हैं पर उनमे से ज़्यादातर अस्पष्ट हैं केवल बाएँ दरवाजे के बाहरी दीवार पर उत्कीर्ण एक लिपी को छोड़ कर। इस गुफा के निर्माण के मकसद एवं निर्माण के समय को निश्चित करने में यह लेख महत्वपूर्ण साबित होता है।

दूसरी या पूर्वी गुफा पहली गुफा से कुछ नीचे बनी है परंतु इसमें कोई शक नहीं की दोनों की खुदाई एक ही समय पर हुई थी। इसकी खोज सर्वप्रथम कनिंगहम द्वारा की गयी थी जिन्होंने गिरी हुई छत, मिट्टी और पत्थरों से भरे अंदरूनी भाग पर गौर किया था। अंदर के मलबे की सफाई कर इसके फर्श के मूल स्तर को निकाला गया है। इसकी बाहरी दीवार पर बने बीम के सुराखो तथा सामने के चबूतरे को देखकर लगता है की इसके बाहरी भाग में एक बरामदा रहा होगा जिस पर छत बनी थी।

ईंटों से बने इसके किनारे को अब भी देखा जा सकता है। गुफाओं की दूसरी मंजिल ईंटों से बनी है जहाँ पर पहुँचने के लिए पत्थरों को काटकर सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं। गरुड़ पर सवार विष्णु की एक सुंदर मूर्ति जो गुप्तकाल की रचना प्रतीत होती है और वर्तमान में नालंदा म्युजियम में संग्रहित है इसके दरवाजे पर उस समय स्थापित थी।

लगता है जब जैनों ने इन गुफाओं को त्याग दिया था और इस मूर्ति को सामने के बरामदे में मुँह के बल गिरी अवस्था में पाया गया था। गुफा के अंदर दाहिनी दीवार पर 6 छोटी-छोटी जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ हैं जो पत्थरों पर खुदी हुई हैं और इनमें पदमप्रभु, पार्श्वनाथ एवं महावीर स्वामी की मूर्तियाँ है।

शिलालेखों से पता लगता है की इस गुफा की खुदाई का कार्य एक जैन सन्यासी ने 3-4 ई. में किया था। इन गुफाओं में से एक की दीवार पर बनी जैन तीर्थकरों की मूर्तियों से भी यह बात सिद्ध होती है। पश्चिमी गुफा में वर्तमान में शिखराकृति की काले पत्थर की चौमुखी मूर्ति है, इसमें ओर जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनी है।

इन मूर्तियों की शिला पर बैलों की जोड़ी, हाथियों की जोड़ी, घोड़ों की जोड़ी व बंदरों की जोड़ी बनी है, हर जोड़ी के बाजू में एक चक्र है जिस से प्रतीत होता है की ये प्रथम चार तीर्थकर, ऋषभदेव, अजीतनाथ, संभवनाथ एवं अभिनंदन की तरफ इशारा करते हैं।

रण भूमि

सोनभंडार से लगभग 1.5 कि.मी. पश्चिम की तरफ एवं गुफाओं से सँकरी पगडंडी से पहुंची जा सकने वाली इस जगह को स्थानीय लोग अखाड़ा या जरासंध की रणभूमि कहते हैं। यह महाभारत काल में बनाई गयी वही जगह है जहाँ पर भीमसेन और जरासंध के बीच एक महीने तक मल्लयुद्ध चला था।

भीम, अर्जुन और श्रीकृष्ण एक साथ भेष बदलकर राजगृह में प्रवेश किए। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी मगर कुश्ती के शौकीन लोग यहाँ से भारी मात्रा में मिट्टी अपने लिए ले गए। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं जिनके बारे में लोग कहते है की वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान है।

बिंबिसार कारागार

मनियार मठ से लगभग 1 कि.मी. की दूरी पर लगभग 60 वर्ग मी. का एक क्षेत्र है जिसके चारों तरफ 2 मी. चौड़ी दीवार है और जिसके कोने पर वृताकार बुर्ज बने हैं। यह संरचना बिंबिसार कारागार कहलाती है जहाँ उनके पुत्र अजातशत्रु ने उन्हें बंदी बनाकर रखा था। राजा ने खुद अपने बंदी जीवन के लिए इस जगह को चुना था क्योंकि इस जगह से वे गृधकूट पर्वत की चोटी पर अपने शैलावास पर चढ़ते हुए भगवान बुद्ध के दर्शन कर पाते थे। खुदाई से निकले इसके फर्श पर लगे लोहे के कड़े से इसके कारागार के अवशेष होने का प्रमाण मिलता है।

अजातशत्रु का किला

गौतम बुद्ध के समकालीन ईसा पूर्व छठी सदी में मगध के राजा अजातशत्रु ने इसका निर्माण किया था। वर्तमान में इसके अवशेष मात्र ही शेष है जो आज भी इसकी भव्यता की कहानी बयान करते है। इसी के सामने 6.5 वर्ग मी. की अजातशत्रु स्तूप का निर्माता भी उसे ही बताया जाता है। यहीं बिंबिसार का कारागार भी है।

गृध्रकूट पहाड़ या गिद्ध शिखर

नगर के बाहर एक छोटा सा पहाड़ ही गृध्रकूट कहलाता हैं। इस पहाड़ की आकृति गिद्ध की चोंच जैसी है शायद इसके इस प्रकार के कारण ही इसका यह नाम पड़ा है। यह स्थान भगवान बुद्ध को बहुत प्रिय था यहाँ पर उन्होने अपने जीवन का काफी समय व्यतीत किया था। बुद्धत्व प्राप्ति के 16 साल बाद गौतम बुद्ध ने यहाँ पर, 5000 बौद्ध सन्यासी, सन्यासियों एवं जनसाधारण तथा बोधिसत्व के सम्मेलन में दूसरे धर्मचक्र प्रवर्तन का सिद्धांत लिया एवं हर साल वर्षा के मौसम में अपने शिष्यों का अनेक प्रेरणात्मक उपदेश दिये।

गृध्रकूट पर ही उन्होने अपने पदपसूत्र को प्रस्तुत किया जिसमें सभी प्राणियों को मोक्ष प्रदान करने का वादा किया गया है। इस सूत्र में भगवान बुद्ध के करुणापरायणता की साफ झलक मिलती है। इसमें भगवान बुद्ध कहते है की आम लोग जो पार्थिव तकलीफ़ों को लेकर परेशान है, उनमें जो भी बुद्ध के सामने अपना हाथ जोड़े या मुँह से ‘नमो बुद्ध’ का उच्चारण मात्र करे उन सब के लिए बुद्धत्व प्राप्ति की बात बताई गयी है।

भगवान बुद्ध ने गृध्रकूट से ही ‘प्रज्ञा पारमिता’ सूत्र अथवा सही ज्ञान के सूत्र का भी उपदेश दिया था। इन उपदेशो को संग्रह करने में भगवान बुद्ध को 12 साल लगे और उन्होने खुद आनंद से कहा की इसमें उनके सारे उपदेशों का सारांश निहित है। इन बाद के उपदेशों को महाकश्यप ने रिकार्ड किया एवं शाक्यमुनी ने इन्हें तब तक के लिए नागों के संरक्षण में रखा जब तक जन मानस इन उपदेशों का सही अर्थ समझने में सक्षम हो।

जब चीनी तीर्थयात्रियों ने गृध्रकूट का भ्रमण किया तो उन्होने इस सम्मेलन स्थल को खाली एवं हरा भरा देखा। फ़ाहियान ने एक गुफा एवं ह्वेनसांग ने इससे नीचे एक हॉल का जिक्र किया जहा पर भगवान बुद्ध बैठते और उपदेश दिया करते थे। ह्वेनसांग के अनुसार किसी समय गृध्रकूट पर एक बौद्ध मठ हुआ करता था जहाँ बहुत से योगी और कई अर्हंत रहते थे। अब भी गृध्रकूट में शांति का वातावरण है परंतु जैसा की फ़ाहियान ने यहाँ पर कई जगह शेर और बाघों के आक्रमण से सावधान रहने की बात कही है, आधुनिक पर्यटकों को यहाँ डाकुओं से सावधान रहने की सलाह दी जाती है।

रत्नागीरि के पहाड़ (विश्व शांति स्तूप)

गृध्रकूट पर्वत के बाजू में रत्नागिरि के पहाड़ हैं इसी पर्वत पर है राजगीर का प्रर्यावाची विश्व शांति स्तूप। जहाँ पर रोप-वे (जापानी झूला) पर चढ़ने वाले पर्यटकों की चहल-पहल से माहौल गूँजता रहता है। इस रोप-वे का निर्माण जापान के बौद्धसंघ ने किया है और यह 160 फीट ऊँचे विश्व शांति स्तूप तक जाता हैं। ऊपर पहाड़ तक चढ़ने के लिए पैदल रास्ता भी है जो पर्वत काटकर बनाया गया है लेकिन यह मार्ग कठिन है तथा रोप-वे द्वारा हवाई सफर इससे कई गुना ज्यादा रोचक व सरल है जो गुरुवार के सिवाय हर दिन चालू रहता है।

एक तरफ के सफर में सिर्फ 5-7 मिनट लगते हैं और ऊपर से राजगीर के पहाड़ों का दृश्य अत्यंत मनोहर दिखाई पड़ता है। 2200 फीट रोप-वे पर्यटकों को पहाड़ की चोटी पर स्थित विश्व शांति स्तूप तक पहुँचता है। यह एक वृहत क्षेत्र में फैला हुआ है। जहाँ ड्रम के साथ ‘न-मु-मयो-नग-क्यों’ व नाम-म्यो-हो-रें-गे-क्यो के मंत्रोच्चारण की आवाज वातावरण को सजीव बना देती है।

यहाँ एक विशाल स्तूप में चारों दिशाओं में बुद्ध की स्वर्णिम मूर्तियाँ उनके चार कर्मोः जन्म, बुद्धत्व प्राप्ति, उपदेश प्रदान एवं मृत्यु के प्रतीक हैं। स्तूप में सीढ़ियों की सहायता से ऊपर जाया जा सकता है। पास ही स्थित है एक भव्य बौद्ध मंदिर जिसमें भित्ति चित्रों का सुंदर चित्रण देखने योग्य हैं।

आम्रवन अथवा जीवक का आम्र उद्यान

रोप-वे के रास्ते में स्थित आम्रवन अथवा जीवक का उद्यान वह जगह है जहां राज्यवैद्य जीवक ने, अपने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा भगवान बुद्ध को आहत किए जाने पर उनके घावों पर पट्टियाँ बांध कर उनका इलाज किया था। जीवक ने यहाँ पर बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए एक विहार का निर्माण भी करवाया था। इस घने आम्रवन में बुद्ध कुछ समय के लिए ठहरे थे और यहीं पर अजातशत्रु उनसे उपदेश लेने के लिए आए थे।

मर्दकुक्षी विहार

पालिभाषा में इसका नाम मद्दकुच्छी विहार हैं। दन्त कथाओं के अनुसार राजा बिंबिसार की रानी को यह पता था की उनके गर्भ का बालक अपने पिता की हत्या करेगा अतः वह गर्भपात करवाकर उससे छुटकारा पाने के लिए इसी जगह अपने गर्भ पर मालिश करवाने आई थीं। पालीभाषा के ग्रन्थों के आधार पर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है की यह गृध्रकूट के पहाड़ के पास ही स्थित था क्योंकि गौतम बुद्ध के चचेरे भाई देवदत्त द्वारा पत्थर के टुकड़े के आघात से आहत भगवान बुद्ध को स्ट्रेचर पर चढ़ाकर सबसे पहले यहाँ पर लाया गया था। उसके बाद उन्हें जीवक के मठ तक ले जाया गया। वर्तमान में इस जगह पर एक हिरन उद्यान एवं एक मठ है।

बिंबिसार सड़क

ह्वेनसांग के अनुसार जब बिंबिसार बुद्ध से मिलने गृध्रकूट के पहाड़ पर जाने लगे तब उन्होने अपने साथ बहुत से लोगों को भी ले लिया जिन्होने घाटी को बराबर बनाया और खड़ी चट्टानों के बीच पुल बनाया तथा पहाड़ी पर चढ़ने के लिए लगभग दस कदम चौड़ी 5-6 लंबी सीढ़ियों का निर्माण किया। मार्शल के अनुसार इन सीढ़ियों का इस्तेमाल ह्वेनसांग ने भी किया था और आज भी यें बरकरार हैं एवं जंगल से गृध्रकूट पहाड़ तक पहुँचने का यह सबसे सुविधाजनक मार्ग है।

राजगीर के दूसरी प्रागैतिहासिक संरचनाओ की तरह यह भी ऊबड़-खाबड़ बिना तराशे हुए पत्थरों की बनी हैं और इसकी चौड़ाई 20-24 फीट है जो ह्वेनसांग द्वारा कहे गए 10 कदम के नाप के साथ सही मेल खाती है। वर्तमान में यहाँ नयी सीढ़ियों का निर्माण हो गया है।

सेल

रथ का मार्ग एवं सीप की लिपि अपने अनोखेपन की वगह से दर्शनीय हैं। 30 फीट लंबी समानान्तर रेखाओं में पत्थरों पर बने गहरे निशानों को देखकर यहाँ प्रचलित कहानी पर यकीन होने लगता है की यह भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं, महाभारत के समय में जब श्री कृष्ण ने अपने रथ पर सवार होकर राजगीर में प्रवेश किए थे तब उनके रथ की गति और महिमा से पहाड़ भी जल गए थे और उस पर उनके रथ के पहियों के निशान उत्कीर्ण हो गए। रथचक्र के निशान के इर्द-गिर्द, 1-5 वीं सदी में पूर्व एवं मध्य भारत में प्रचलित, कुछ अंजाने अर्थ वाली सीप की लिपि बनी हुई है।

खून के धब्बे सहित पत्थर

यहाँ पर लाल रंग लगे पत्थर हैं जिसे खून के धब्बे बताते हैं। ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है की यह देवदत्त के पत्थर के घर से ज्यादा दूर नहीं था और उन्हे बताया गया था की वहाँ कोई समाधिस्थ सन्यासी रहते हैं जिन्होने खुद को जख्मी कर लिया है। यह पत्थर अब भी मखदूम कुंड के ऊपर देखा जा सकता है, जो विपुल पहाड़ के उत्तरी भाग में अलग एक उष्ण झरना (कुंड) है।

इसके उपरी भाग में एक छोटी सी गुफा है, जहाँ चौड़ी सीढ़ियों से पहुँचा जा सकता है, कहा जाता है की बिहार के मुस्लिम संत मखदूम-शाह शरूफूंद-दीन जब राजगीर के जंगलों में 12 सालों तक ध्यान लगाने के मकसद से घूम रहे थे प्रायः यहाँ आकर रहते थे। पत्थर का दक्षिणी हिस्सा ज्यादा ऊँचा है जहाँ सीढ़ियों से पहुँचा जा सकता है।

स्तूप

सरस्वती नदी के दूसरे छोर पर नए राजगीर के पश्चिम भाग में एक विशाल टीला है जो फ़ाहियान के अनुसार अजातशत्रु द्वारा निर्मित एवं ह्वेनसांग के अनुसार अशोक की बनाई स्तूप है। वर्ष 1905-06 में भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा खुदाई के समय यह टीला पूरब की ओर 10 मी. ऊँचा था मगर दूसरे तरफ इसकी ऊंचाई इससे कम थी। इस खुदाई से टीले के पश्चिमी भाग में 3.5 मी. की गहराई से निकली ईंट बिल्कुल मौर्यकालीन प्रतीत होती है जिनका इस्तेमाल बाद में एक भवन के निर्माण में किया गया है।

टीले के लगभग मध्य भाग के स्तूपों के अवशेष चूना पत्थरों के गड्ढे प्राप्त हुए हैं। टीले के पश्चिम भाग में, जहाँ केवल मात्र 3 मी. की खुदाई से कुछ ईंटों की दीवारों के अवशेष दिखाई देते हैं एवं उसके इर्द-गिर्द व ऊपर लगभग 5 से.मी. ऊंची एवं 2.5 से.मी.के व्यास वाले कई छोटे-छोटे मिट्टी के स्तूप पाये गए है। इन छोटे-छोटे स्तूपों में हर एक के अंदर मिट्टी से बनी छोटी सी पट्टी पर बौद्ध धर्म की ‘ये धर्म’ आदि, 8-9 सदीं में प्रचलित अक्षरों में लिखी हुई हैं।

इन छोटे स्तूपों की उपस्थिति से ऐसा लगता है की यहाँ एक बड़ा स्तूप, जिसके केंद्र स्थल में मिट्टी एवं रोड़ियों से भरी गयी थी उपरोक्त ईंटों की दीवारों के अवशेषों पर बनाया गया था।

बिंबिसार मार्ग पर आगे बढ़ने पर ईंटों से बने दो स्तूप और हैं जिसमें से पहले का आधार 73 मी. है। दूसरा स्तूप थोड़ा और आगे जहां मार्ग उत्तर दिशा में मुरता है वहाँ पर है। ह्वेनसांग ने दोनों स्तूपों को देखा था। उनके अनुसार पहला स्तूप उस जगह पर बना है जहाँ बिंबिसार अपने रथ से उतरा था और दूसरा उस जगह पर है जहाँ से उन्होने उनका करने वाले लोगों को वापस भेजा था। इन स्तूपों को 1905-06 में खोला गया था लेकिन कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं निकली।

अजातशत्रु ने वेणुवन के पूर्वी दिशा में एक दूसरे स्तूप का निर्माण किया था। जो अजातशत्रु स्तूप कहलाता है। यह स्तूप वेणुवन के बहुत ही करीब रहा होगा क्योंकि मंजू श्री मूलकल्प में इसे वेणुवन क्षेत्र के अंदर बताया गया है। ऐसे में यह बात सामने आती है की आधुनिक सड़क के बाई ओर के टीले पर स्थित स्तूप जिसके पत्थर से बने आधार को अब भी देखा जा सकता है और जिस पर काफी समय बाद में निर्मित कुछ स्तम्भ बने हैं। इनका निर्माण बाद में हुआ था।

हाल में पुरातत्वविज्ञानिकों ने संसार के विशालतम स्तूप को खोज निकालने का दावा किया है। अजातशत्रु द्वारा निर्मित पत्थर की इस संरचना का जिक्र बौद्ध ग्रन्थों तथा विदेशी पर्यटकों के लेखों में भी किया गया है परंतु यह हजारों वर्षों तक रेत में दबी हुई थीं। ईसा पूर्व 483 सदी में कुशीनगर में भगवान बुद्ध के देहांत के बाद उनके अवशेषों पर इस स्तूप का निर्माण किया गया था।

अवशेषों को आठ विभागों में बाँटा गया था, और उन पर जितने स्तूपों का निर्माण लिच्छवि राजाओं ने किया उतनी ही संख्या में स्तूपों का निर्माण अजातशत्रु ने भी किया था जो खुद मगध के हर्यंक वंश का राजा था और जिसकी राजधानी राजगृह थी। पुरातत्व विभाग के अनुसार अजातशत्रु द्वारा बनाए गए स्तूप का पता नहीं लगा था।

बुद्ध के जीवन पर आधारित ‘महापरिनिर्वाणसूत्त’ नामक एक पुस्तक में इसका उल्लेख है की यह ईंटों से बना स्तूप है जो राजगृह में ही कहीं स्थित है। विदेशी पर्यटक फ़ाहियान ने भी इसका उल्लेख किया है और इसके बारे में विस्तार से वर्णन किया है। परंतु हाल के कुछ दिनों तक भी पुरातात्विकों का विश्वास था की स्तूप शहर के उत्तरी भाग में किसी जगह पर है।

लेकिन उन्होने विस्तृत खुदाई के दौरान एक पत्थर की संरचना के निकलने के बाद इसकी आशा छोड़  दी थी। इस स्तूप के बारे में कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि ‘आत्मकथा’ नामक बौद्ध स्तूपों के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करने वाले एक पुस्तक में भी इस स्तूपों को ईंटों से निर्मित होने का उल्लेख किया गया था। इसके बाद ही दक्षिण पूर्वी भाग में इतिहास की खोज करने वालों को घने जंगलों के बीच, टीलों से घिरी हुई एक समतल भूमि दिखाई दी। अब जो संरचना निकली वह ईंटों से बनी थीं और उसमें, 29 मी. एवं 25 मी. के दो ‘टेरेस’ बनी थीं।

उपरी ‘टेरेस’ पर एक संरचना मिली जो ‘जीवकाम्रवन’ नामक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ के वर्णन से मेल खाती थी। ‘‘हालाँकि कुछ अवशेष टूटी हालत में थे, पर वे असली प्रतीत होते हैं।’’ इसकी ईंटों से बनी संरचना इसकी असलियत को सिद्ध करती हैं। यह पटना के पुरातन सर्वेक्षण के सुपरिटडेंट के. के. मुहम्मद का कहना है। जिस क्षेत्र में ये अवशेष स्थित हैं वह क्षेत्र भारतीय रेलवे द्वारा पटरियाँ बिछाने के लिए अधिकृत किया गया था।

स्तूप के चारों ओर टीलें इस वजह से पाट कर जमीन बराबर कर दी गयी हैं। एक पुरातात्विक के अनुसार, ‘यह समय का मामला है। हम सौभाग्यशाली हैं क्योंकि हम जल्दी से सक्रिय हुए एवं रेलवे को जमीन के इस हिस्से को छोड़ देने के लिए कहा’। स्तूप के साथ कुछ औजार भी पुरातात्विकों ने खोज निकाले हैं जो उनके अनुसार ‘पेलिओलिथिक काल’ के हो सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो राजगीर का इतिहास और भी कई सदियों के पीछे से शुरू होगा और यह नगर मानव सभ्यता के प्राचीनतम नगरों मे से एक बन जाएगा।

मखदूम कुण्ड

राजगृह हिंदूतीर्थ के साथ-साथ मुस्लिम तीर्थ भी है। यह फकीर मखदूम साहब की साधना स्थली है उन्होने यहाँ लंबे समय तक धर्म साधना कर धर्म का प्रचार किया। जिसका प्रमाण देता है यह मखदूम कुण्ड। यह भी गरम पानी का स्रोत है। यहाँ एक मस्जिद भी है।

पांडु पोखर –

गर आप प्रकृति प्रेमी है और आपको एड्वेंचर का भी शौक है तो आपको पांडु पोखर जरूर आना चाहिए। पांडु पोखर राजगीर के दर्शनीय स्थलों में से एक है। बिहार राज्य के नालंदा जिले में स्थित ये एंटरटेनमेंट पार्क 22 एकड़ के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। ऐसा कहा जाता है की महाभारत काल में यह स्थान महाराज पांडु का अस्तबल हुआ करता था और बाद में वर्षा जल से धीरे-धीरे यह तालाब बन गया जिसका प्रयोग स्थानीय लोग करने लगे।

यहाँ उनकी 60 फीट की ऊँची मूर्ति भी स्थापित की गई है। यहाँ पर आपको बहुत सी ऑउटडोर ऐक्टिविटीज जैसे बंजी जंपिंग, वॉली बॉल, राफ्टिंग, क्रिकेट, बोटिंग आदि करने को मिलेगी। इंडोर ऐक्टिविटीज में आप टेबल टेनिस, कैरम, एयर हॉकी आदि का आनंद भी ले सकते है। यहाँ पर एक ही जगह पर आप अनेकों एडवेंचर स्पोर्ट्स का मजा उठा सकते हैं जैसे बर्मा ब्रिज, जॉर्बिंग कैप्सूल, जिपलाइन, टेंडेम साइकिल, जॉर्बिंग बॉल आदि।

इन सब के अलावा अगर आप कैंपिंग के शौकीन है तो आप को यह जान कर बहुत खुशी होगी की आप को यहाँ उसकी सुविधा भी मिल जाएगी। आप यहाँ  के मल्टी-कुजीन रेस्टोरेंट “फ्लेवर्स” में आकर देश-विदेश के बेहतरीन खाने का आनंद भी उठा सकतें है। इन सारी सुविधाओं के अलावा यहाँ पर ओपन एयर थिएटर और मेडिटेशन सेंटर भी है। पांडु पोखर में घूमने आने वालों के लिए 5 तरह के टिकट की व्यवस्था की गई है।

इन में आपको व्हाइट, येलो, ग्रीन, सिल्वर और गोल्डन कलर के बैंड मिलेंगे। इन सबमें गोल्डन बैंड सबसे महंगा है पर आप इस बैंड के साथ सारी एक्टिविटीज के साथ साथ हाई-टी और लंच का लुत्फ भी उठा सकतें हैं। अगर आप यहाँ पर सप्ताहांत में जाएंगे तो सप्ताह के बाकी के दिनों की तुलना में आपको टिकट का थोड़ा अधिक मूल्य देना पड़ेगा।

राजगीर नेचर सफारी

राजगीर की नेचर सफारी को 500 हेक्टेयर के विशाल क्षेत्र में बनाया गया है और इसे बनाने में करीब 19 करोड़ रुपयों की लागत लगी है। यहाँ पर आप रॉक क्लाइम्बिंग वॉल, रेसलिंग जोन, ग्लास स्काई वॉक ब्रिज, सस्पेंशन ब्रिज, जिप लाइन और एडवेंचर पार्क का आनंद उठा सकते हैं। इसके अलावा आप 8 सीटर केबिन कार रोपवे की मदद से विश्व शांति स्तूप तक भी काफी आसानी से जा सकते हैं। राजगीर नेचर सफारी का एंट्री टिकट का मूल्य 50 रुपये है और बाकी की गतिविधियों का शुल्क अलग है। नेचर सफारी की मुख्य आकर्षणो के बारे में नीचे विस्तार से बताया गया है।

राजगीर स्काई वॉक ब्रिज

राजगीर में पर्यटन को बढ़ाने के लिए बिहार सरकार ने स्काई वॉक ब्रिज का निर्माण कराया है। यह स्काई वॉक ब्रिज भारत का दूसरा और बिहार का पहला ग्लास ब्रिज है। पांच पहाड़ियों के बीच बने शीशे के इस अत्यंत सुंदर पुल में लगे पारदर्शी शीशे लगे हैं। ऐसा कहा जा रहा है की इस पुल को बनाने की प्रेरणा चीन के हांगझू ब्रिज से ली गयी है। समुंद्र तल से 7200 फिट की ऊँचाई पर स्थित यह शीशे का पुल करीब 85 फिट लंबा और 6 फिट चौडा है।

राजगीर स्काई वॉक ब्रिज टिकट

ग्लास स्काईवॉक ब्रिज के लिए 25 प्रतिशत टिकट ऑनलाईन मिलते है। बाकी के टिकट्स आप ऑफ़लाइन माध्यम से ले सकतें हैं। प्रशासन द्वारा अभी इस शीशे के पुल पर सिर्फ 800 लोगों को आने की इजाजत दी गई है। ग्लास ब्रिज के टिकट की कीमत 125 रुपये हैं ।

राजगीर सस्पेंशन ब्रिज

नेचर पार्क में ही राजगीर सस्पेंशन ब्रिज भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का मुख्य केंद्र है। यह ब्रिज दो पहाड़ों को आपस में जोड़ता है। इस ब्रिज को बनाने की प्रेरणा इंग्लैंड के क्लिफ्टॉन ब्रिज से ली गई है। इस ब्रिज की लंबाई 135 मीटर और चौड़ाई 6 फीट के आसपास है। इस ब्रिज के टिकट प्राइस 10 रुपये है।

राजगीर रोपवे

राजगीर में नया रोपवे हाल में ही बना है। इसके पहले यहाँ पर सिर्फ चेयरलिफ्ट रोपवे हुआ करता था। 8 सीटर इस केबिन कार रोपवे की मदद से मात्र 1 घंटे में करीब 800 लोग करीब 1.7 किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं। इसमें अभी 20 केबिन लगे हुए है। यह बिहार राज्य का पहला रोपवे है जो की ऑस्ट्रिया से से मँगवाया गया है। इस केबिन कार में ऑटोमैटिक दरवाजे की सुविधा है जिससे दरवाजे खुद ही खुलते और बंद हो जातें हैं। यह रोपवे नीचे से ऊपर जाने में अभी 3:50 मिनट का समय लेता है। हर प्रकार के आयु वर्ग के लोग इस केबिन कार रोपवे में बड़ी ही आसानी से बैठ सकते हैं। रोपवे का शुल्क प्रति व्यक्ति 80 रुपये है।

जिप लाइन

यहाँ पर आप जिप लाइनिंग का भी मज़ा ले सकते है। इसके लिए दो पहाड़ियों को जिप लाइन के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ा गया है जिससे की पर्यटक पुली के सहारे लटक कर रस्सी के इस छोर से दूसरे छोर तक जा सकते हैं। जिप लाइन का आनंद लेने के लिए आपको 100 रुपये का शुल्क चुकाना पड़ेगा।

मड हाउस

नेचर सफारी के द्वारा बिहार सरकार ईको-टूरिज़्म को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देना चाहती है और उनका ये प्रयास है की लोग प्रकृति के और भी करीब आए इसीलिए उन्होंने नेचर सफारी में मड हाउस का निर्माण करवाया है। जिसे मिट्टी और भूसे की मदद से बनाया गया है। इसके अलावा ट्री-हाउस भी बनवाए गए है जिससे पहले के लोग कैसे पेड़ों पर रहते थे इसका अनुभव यहाँ आने वाले पर्यटक भी कर सकें। इसका शुल्क 500 रुपये है।

1 thought on “राजगीर के सभी दर्शनीय स्थल और उनका समृद्ध इतिहास | History of Rajgir Bihar in Hindi”

  1. Very informative artical.
    इसे पढ़ने मे मुझे 1 घंटा लगा मगर जो बातें मैं वर्षों से जानना चाहती थी उससे भी अधिक बातें मैं इसे पढ़कर समझ गई।
    लेखक को इस गहन शोध के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

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