चाणक्य नीति प्रथम अध्याय-जिसके जान लेने से मनुष्य सब कुछ जान लेने वाला-सा हो जाता है।

चाणक्य नीति भारतीय इतिहास और संस्कृति को प्रकट करने वाली एक ऐसी अनमोल धरोहर है, जिसपर हम गर्व से सिर ऊंचा कर के दुनिया को यह कह सकते हैं की भारतीय दार्शनिक, लेखक, विचारक दुनिया के विद्वानो से किसी भी क्षेत्र मे कम नहीं थे।

लगभग 2400 वर्ष पहले नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य चाणक्य ने उस समय की व्यवस्था का वर्णन अपनी ‘चाणक्य नीति’ मे किया है।

चाणक्य नीति को पढ़ने वाले लोग, मित्र से लेकर दुश्मन तक, पतिव्रता स्त्री से चरित्रहीन स्त्रियों मे भेद, जनता का अधिकार, राजा का कर्तव्य, वर्ण व्यवस्था इत्यादि की परख आसानी से कर पाएंगे।

महापंडित आचार्य चाणक्य की चाणक्य नीति मे कुल सत्रह अध्याय हैं। इन सत्रहों अध्याय के ज्ञान से एक साधारण मनुष्य भी सांसरिक ज्ञान का विद्वान बन सकता है। बस आवश्यकता है तो इस ज्ञान को अपने अंदर समाहित करने की।

इस पोस्ट मे आप प्रथम अध्याय के शुरुआती के उन 3 श्लोकों को पढ़ पाएंगे जिनमे आचार्य चाणक्य ने अपने ज्ञान को दुनिया को समर्पित करने के पहले ईश्वर का धन्यवाद किया है और बताया है की इस ग्रंथ को पढ़ने से क्या होगा?

तो फिर चलिये ईश्वर का नाम लेकर शुरू करते हैं।

|| अथ प्रथम अध्याय ||

प्रणम्य शिरसा विष्णुं त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।

नानाशास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीतिसमुच्चयम् ॥

सर्वशक्तिमान तीनों लोकों के स्वामी श्री विष्णु भगवान को शीश नवाकर मैं अनेक शास्त्रों से निकाले गए राजनीति सार के तत्त्व को जन कल्याण हेतु समाज के सम्मुख रखता हूं।

राजनीति के प्रकाण्ड विद्वान चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के आचार्य थे। यहां प्रारम्भ में वे उस परम पिता परमात्मा का स्मरण करते हैं और राजनीति के सार तत्त्व को जन-मानस के सम्मुख रखते हैं।

अधीत्येदं यथाशास्त्रं नरो जानाति सत्तमः।

धर्मोपदेशविख्यातं कार्याऽकार्य शुभाशुभम् ॥

इस राजनीति शास्त्र का विधिपूर्वक अध्ययन करके यह जाना जा सकता है कि कौन-सा कार्य करना चाहिए और कौन-सा कार्य नहीं करना चाहिए। यह जानकर वह एक प्रकार से धर्मोपदेश प्राप्त करता है कि किस कार्य के करने से अच्छा परिणाम निकलेगा और किससे बुरा। उसे अच्छे बुरे का ज्ञान हो जाता है। 

चाणक्य का मत है कि राजनीति में कभी-कभी कुछ कर्म ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिन्हें देखक सोचना पड़ता है कि यह उचित हुआ या अनुचित, परंतु जिस अनीति कार्य से भी जन-कल्या होता हो अथवा धर्म का पक्ष प्रबल होता हो तो उस अनैतिक कार्य को भी नीति सम्मत हा माना जाएगा। उदाहरण के रूप में महाभारत के युद्ध में युधिष्ठिर द्वारा ‘अश्वत्थामा का मृत्यु का उद्घोष करना यद्यपि नीति विरुद्ध था, पर नीति कुशल योगीराज कृष्ण ने इसे उचित माना था, क्योंकि वे गुरु द्रोणाचार्य के विकट संहार से अपनी सेना को बचाना चाहते थे।

तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।

येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रपद्यते॥

लोगों की हित कामना से मैं यहां उस शास्त्र को कहूंगा, जिसके जान लेने से मनुष्य सब कुछ जान लेने वाला-सा हो जाता है।

यहां चाणक्य ने संकेत दिया है कि जो व्यक्ति राजनीति से सम्बन्धित उनकी नीतियों को जान लेगा, वह राजनीति का प्रकाण्ड पंडित हो जाएगा। वस्तुतः चाणक्य ने राजनीति के विषय में शास्त्रों का गूढ़ अध्ययन किया था तथा उनका सूक्ष्म परीक्षण भी किया था। अपने जीवन का अनुभव उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ इन श्लोकों में उतार दिया है।

जिस प्रकार हम किसी भी कार्य को शुरू करने के पहले ईश्वर का नाम लेते हैं, ये तीन शुरुआती के श्लोक ठीक उसी प्रकार ईश्वर का धन्यवाद देने और चाणक्य नीति लिखने के उद्देश्य को बताया गया है।

आगे के श्लोकों मे मूल शिक्षा दी गई है अतः इसी कैटेगरी मे आगे के श्लोक लिखे गए हैं। आगे पढ़ें।

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