नालंदा यूनिवर्सिटी
प्राचीन काल में भारतवर्ष शिक्षा के क्षेत्र में सबसे आगे हुआ करता था। यहाँ की शिक्षा-पद्धति पूरे विश्व में आश्चर्य का विषय थी। पाँचवीं शताब्दी ई.पू. से 1200 सीई के बीच यह शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। इसी वजह से नालंदा विश्वविद्यालय मे शिक्षा प्राप्त करने के लिए लोग तिब्बत, तुर्की, जापान, चीन, इंडोनेशिया, तिब्बत, फारस तथा कोरिया जैसे देशों से आते थे।
यहाँ प्रवेश लेने के लिए तीन स्तरों वाली बहुत ही कठिन प्रवेश परीक्षा हुआ करती थी। अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र ही इन परीक्षाओं में सफल होकर यहाँ प्रवेश पाते थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने यहाँ आकर शिक्षा प्राप्त की और यहाँ के जीवन के बारे में अपनी किताब में लिखा।
प्राचीन भारत में बहुत से विश्वविद्यालय हुआ करते थे जिनमे से एक महान विश्वविद्यालय नालन्दा भी था जो कि अपनी समृद्ध विरासत और ऐतिहासिक महत्व के लिए पूरे विश्व में जाना जाता था।
नालन्दा विश्वविद्यालय बिहार राज्य जिसे तब मगध के नाम से जाना जाता था की राजधानी पटना के 95 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व बिहार शरीफ के पास स्थित था। 1193 में आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिए जाने के बाद आज बस यहाँ पर इसके खंडहर बचे है जिसे यूनेस्को के द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित कर दिया गया है।
नालन्दा प्राचीनकाल का सबसे प्रसिद्ध बौद्ध महाविहार था। शिक्षा का केंद्र होने के साथ-साथ यह एक बौद्ध तीर्थस्थान भी था। यहाँ आने वालों को आज भी आध्यात्मिक शांति के साथ-साथ भारत के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति, वास्तुकला और पर्यटन की झलक देखने को मिलती है।
नालन्दा विश्वविद्यालय दुनिया के सबसे पुराने और बेहतरीन आवासीय विश्वविद्यालयों में से एक हुआ करता था। उस समय यहाँ पर करीब 10,000 छात्र और 2000 शिक्षक रहा करते थे। नालंदा विश्वविद्यालय में तीन लाख किताबों से भरा एक विशाल पुस्तकालय, तीन सौ से भी ज्यादा कमरें और सात विशाल कक्ष हुआ करतें थे। इसका भवन बहुत ही सुंदर और विशाल हुआ करता था जिसकी वास्तुकला भी अत्याधिक सुंदर थी।
प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में एक मुख्य प्रवेश द्वार था बाकी का सारा परिसर चारदीवारी से घिरा हुआ था। परिसर में अनेक स्तूप, मठ और मंदिर थे इन मंदिर में भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ विराजमान हुआ करती थीं। आज इस सुंदर भवन का बस खंडहर ही बाकी है पर इससे भी इस भवन की सुंदरता का अंदाज लग जाता है।
नालंदा परिसर की पूर्व दिशा में “विहार” या मठ हैं और पश्चिम दिशा में “चिया” या मंदिर हैं। इसके अलावा इस परिसर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहां पर कई मूल बौद्ध स्तूप, जले हुए चावल का एक नमूना, हिंदू और बौद्ध कांस्य के सिक्के, टेराकोटा जार आदि का संग्रह है।इस स्थान पर सभी धर्म बड़े ही शांति और सद्भाव से रहा करते थे। बौद्ध धर्म के अलावा, यह सूफीवाद, हिंदू धर्म और जैन धर्म के लिए भी एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था। इसी कारण से यहाँ हमेशा पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है।
क्या आप जानतें हैं कि जब यहाँ के विशाल पुस्तकालय में विदेशी आक्रान्ताओं के द्वारा आग लगा दी गई थी तो यह किताबें 6 महीने तक जलती रही थीं। इस लेख में ऐसी बहुत सी बातें बताई गई हैं तो लेख को पूरा जरूर पढ़ें।
इतिहास:
टैंग राजवंश के चीनी यात्री जुआनजैंग जिन्हे “ह्वेनसांग” के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार ‘नालंदा’ का अर्थ होता है कि ‘बिना अंत के दान या उपहार देने वाला’ जबकि एक पुरातत्वविद हीरानंद शास्त्री के अनुसार इस क्षेत्र में कमल की डंडियां जिसे ‘नाला’ कहते थे, बहुत अधिक मात्रा में पायी जाती थी इसलिए कमल की डंडियां देने वाले को ‘नालंदा’ कहते थे।
ऐसा माना जाता है की नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना पांचवी शताब्दी में गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त ने की थी. इसका कोई ठोस प्रमाण तो नहीं है पर उस समय नालंदा में मिली मुद्राओं से यही सत्य लगता है। कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों ने भी इस विश्वविद्यालय को आगे बढ़ाने में सहयोग दिया।
उन्होंने कई और मठों और मंदिरों का निर्माण करके साम्राज्य का विस्तार किया स्थानीय शासकों जैसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और विदेशी शासक भी इसे दान दिया करते थे। ऐसा माना जाता है कि 24 वें जैन तीर्थंकर- महावीर जैन ने नालंदा में 14 वर्षा ऋतुएँ बिताईं थी। गौतम बुद्ध खुद कई बार नालंदा आए और यहाँ प्रवास भी किया। प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारिपुत्र’ का जन्म यहीं पर हुआ था।
नालन्दा महाविहार:
जो नालंदा विश्वविद्यालय कभी बहुत ही विशाल क्षेत्र में फैला हुआ करता था वह अब सिमट कर के केवल लगभग 12 हेक्टेयर का खंडहर रह गया है। नालंदा में सभी तरह के विषय पढ़ाए जाते थे जिन्हे पढ़ने के लिए कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस और तुर्की के विद्यार्थीऔर विद्वान दोनों ही आते थे।
ह्वेनसांग ने यहाँ के मनोरम वातावरण विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि मठ के चारों तरफ के खूबसूरत जलाशय में नीले कमल के फूल खिला करते थे, जगह-जगह कनक की लताएं जो कि लाल फूलों से भरी हुई थी लटका करती थीं और मठ के बाहर आम के पेड़ हुआ करते थे जो की छाया दिया करते थे। मठ की मीनारें आकाश को छूती थी जिन्हे भिक्षुक अपने कमरों से देखा करतें थे।
पुस्तकालय:
चीन का निवासी यिजिंग यहाँ 10 साल रहने के बाद बहुत ही बड़ी संख्या में किताबें अपने साथ वापस ले गया था। इन संस्कृत ग्रंथों की संख्या करीब 400 के आसपास रही होगी। इन किताबों की संख्या से ही महाविद्यालय के पुस्तकालय के विशाल आकार का पता चल जाता है।
इस पुस्तकालय का नाम धर्मगंज था। प्राचीन तिब्बती स्रोत के हिसाब से नालंदा के विशाल पुस्तकालय में तीन बड़ी बहुमंजिला इमारतें, रत्नसागर (ज्वेल्स का महासागर), रत्नोदधि (ज्वेल्स का सागर), और रत्नारंजका (गहनो से सजी हुई) हुआ करती थी।
रत्नोदधि नौ मंजिला ऊंची थी और इसमे प्रज्ञापारमिता सूत्र और गुह्यसमाज सहित सबसे पवित्र पांडुलिपियों को रखा गया था। नालंदा में मौजूद किताबों की संख्या सटीक रूप से तो नहीं पता है फिर भी अनुमान के हिसाब से इनकी संख्या लाखों में मानी जाती है।
इस पुस्तकालय ने न केवल धार्मिक पांडुलिपियां बल्कि व्याकरण, तर्क, साहित्य, ज्योतिष, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे विषयों पर अनेकों ग्रंथ भी मौजूद थे। नालंदा पुस्तकालय किताबों को सही तरीके से रखने के लिए अवश्य ही संस्कृत भाषाविद्, पाणिनि द्वारा बनाई गई वर्गीकरण योजना का प्रयोग करता था।
आक्रमणकारियों द्वारा विध्वंश:
इस विश्वविद्यालय पर तीन-तीन बार आक्रमण किए गए जिसके बाद दो बार इसे उस समय राज्य करने वाले राजाओं ने फिर से बनवा दिया पर जब तीसरी बार हमला हुआ जो कि अब तक का सबसे बड़ा और विनाशकारी हमला था।
इस हमले में यहाँ के पुस्तकालय की काफी सारी किताबें और दुर्लभ ग्रंथ जल गए थे। माना जाता है की इस विश्वविद्यालय के विनाश से ही भारत में बौद्ध धर्म का भी पतन होना शुरू हो गया।
पहला हमला:
इस विश्वविद्यालय पर पहला हमला सम्राट स्कंदगुप्त के समय में 455-467 ईस्वी में हुआ था। यह हमला मिहिरकुल के तहत ह्यून की वजह से हुआ था। इस हमले में विश्वविद्यालय की इमारत के सात-साथ पुस्तकालय को भी काफी नुकसान पहुँचा था। बाद में स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों के द्वारा पुस्तकालय की मरम्मत करवा दी गई और एक नई बड़ी इमारत बनवा दी गई।
दूसरा हमला:
इस विश्वविद्यालय पर दूसरा हमला 7वीं शताब्दी की शुरुआत में गौदास ने किया था। उस समय बौद्ध राजा हर्षवर्धन का शासन हुआ करता था। 606-648 ईस्वी में उन्होंने इस विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी।
तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला:
इस विनाशकारी हमले के समय यहाँ पल राजवंश का राज्य हुआ करता था। मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी, जो की एक तुर्क सेनापति था, उस समय अवध में तैनात था। इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने लगभग 1193 सी ई में, प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया था।
उसने पुस्तकालय की किताबों को आग लगा दी। जो कुछ भी वहाँ था उसे लूट लिया विश्वविद्यालय में रह रहे हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को इसलिए जला कर मार दिया क्योंकि वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था और उसे बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार से चिढ़ थी। इन बातों का जिक्र फारसी इतिहासकार ‘मिनहाजुद्दीन सिराज’ द्वारा लिखी गई किताब ‘तबाकत-ए-नासिरी’ में मिलता है ।
खिलजी के द्वारा नालंदा के पुस्तकालय को जलाने के पीछे एक कहानी प्रसिद्ध है। कहा जाता है की खिलजी एक बार बुरी तरह से बीमार पड़ गया। सबने उसे नालंदा विश्वविद्यालय के वैद्य आचार्य राहुल श्रीभद्र से इलाज करवाने के लिए कहा पर खिलजी को ना तो आयुर्वेद पर ना वैद्यों पर जरा भी भरोसा था। उसने वैद्य जी के सामने कोई भी दवा ना खाने की शर्त रख दी।
वैद्य जी तैयार हो गए उन्होंने कहा कि आप कुरान के इतने पन्ने पढ़ लीजिएगा आप ठीक हो जाएंगे और ऐसा ही हुआ।
ठीक होने के बाद उसने सोचा की इस तरह से तो भारतीय विद्वान और शिक्षक पूरी दुनिया में मशहूर हो जाएंगे। भारत से बौद्ध धर्म और आयुर्वेद के ज्ञान को मिटाने के लिए उसने नालंदा विश्वविद्यालय और इसके पुस्तकालय में आग लगा दी और हजारों धार्मिक विद्वानों और बौद्ध भिक्षुओं को भी मार डाला।
खिलजी के ठीक होने के संदर्भ मे एक प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है की किसी भी प्रकार के धर्मग्रंथ पढ़ लेने मात्र से कोई बीमारी ठीक किसे हो सकती है ?
इसका उत्तर यह है की वैद्य आचार्य राहुल श्रीभद्र जी ने धर्मग्रंथ के पन्नों पर औषधी का लेप लगा दिया था। जिससे उसे पढ़ने के दौरान जब भी खिलजी पन्नों को पलटता तो अपनी जीभ से उँगली को गीला करता था इससे औषधी उसके मुँह मे चली जाती थी । और वह अनजाने मे औषधी का सेवन करता रहा।
पुनरुद्धार:
1915 में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस साइट का अध्ययन किया और 6 मंदिरों और 11 मठों की खुदाई करवाई। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नालंदा पुरावशेष प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल और पुरावशेष अधिनियम 1958 के तहत नालंदा को संरक्षित स्थल घोषित किया है। इस परियोजना के तहत बिना मूल स्वरूप को बदले इसकी देख-रेख और मरम्मत की जाएगी।
भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय और एनडीटीवी द्वारा किए गए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में नालंदा विश्वविद्यालय भारत के सात आश्चर्यों में से एक चुना गया है।
नालंदा शिलालेख:
यहाँ खुदाई के दौरान कई शिलालेख पाए गए, जिन्हे अब नालंदा संग्रहालय में संरक्षित कर लिया गया हैं। ये शिलालेख निम्न है:
- राजा बालादित्य द्वारा बनाए गए मंदिर को यशोवर्मन के एक मंत्री-पुत्र द्वारा मठ में पाया गया 8वीं शताब्दी सी ई में दान किया गया बेसाल्ट स्लैब मठ संख्या 1 में रखा गया है।
- मर्नवर्मन द्वारा बुद्ध की 24.3 मीटर ऊंची (80 फीट) पीतल की प्रतिमा का निर्माण करवाया गया। 7वीं CE, का यह बेसाल्ट स्लैब, सराय टीले में मिला था।
- भिक्षु विपुलमित्र द्वारा एक मठ का निर्माण किया गया था। बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का बेसाल्ट स्लैब मठ के ऊपर के स्तर में पाया गया था।
- शैलेन्द्र वंश के सुवर्णद्वीप के राजा बालपुत्रदेवा के द्वारा दान की गई 860 सी ई की तांबे की प्लेट हीरानंद शास्त्री की 1960 में मठ संख्या 1 के एंटिचेम्बर में मिली।
नालंदा विश्वविद्यालय के दर्शनीय स्थल:
नालंदा अपने समृद्ध और गौरवशाली इतिहास की वजह से पर्यटकों में बहुत ही प्रसिद्ध है। देश-विदेश से पर्यटक इस देखने आते है। बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने की वजह से यह बौद्ध पर्यटन सर्किट में भी विशेष स्थान रखता है। पर्यटकों के लिए यहाँ देखने के लिए बहुत कुछ है। इन प्रसिद्ध स्थलों के बारें में नीचे बताया गया है:
ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल:
ह्वेनसांग चीन का एक बौद्ध भिक्षु था जो की सम्राट हर्षवर्धन के शासन में भारत आया था। ह्वेनसांग का बचपन से ही बौद्ध धर्म में बहुत रुझान था इसी कारण मात्र 13 वर्ष की आयु में वह मठाधीश बन गया था। पर बौद्ध धर्म की शिक्षाओं में मतभेद देखकर उसने भारत आकर बौद्ध धर्म को अच्छे से जानने का निर्णय लिया।
इसके लिए उसने कई विदेशी भाषाएं सीखी जिनमे संस्कृत भी शामिल थी। वह करीब 15 वर्षों तक भारत में रहा। उसने अपनी भारत यात्रा के बारे में अपनी पुस्तक “सी यू की” में लिखा है। वह करीब 2 वर्षों तक नालंदा विश्वविद्यालय में रहा। यहाँ उसे भारतीय नाम मोक्षदेव दिया गया। यहाँ उसने नालंदा विश्वविद्यालय के शीलभद्र से शिक्षा प्राप्त की। वह यहाँ से करीब बौद्ध धर्म 657 संस्कृत पाठ्य अपने साथ लेकर गया था।
चीन के चआंग में उसने एक अनुवाद केंद्र खोला जिसे अब ज़ियांन कहते है। यहाँ बहुत सारे छात्र आतें हैं। ह्वेनसांग ने बहुत सारे बौद्ध पाठ्यों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। जिससे बहुत सारे बौद्ध पाठ्य जो कि किसी कारण वश खो गए थे वे फिर से मिल गए। ह्वेनसांग द्वारा करीब 1330 पाठ्यों का अनुवाद चीनी भाषा में किया गया था। ह्वेनसांग के इन्ही योगदानों की वजह से ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल बनवाया गया है जहां पर ह्वेनसांग से जुड़ी वस्तुओं को रखा गया है। इसे हाल हीं मे बनवाया गया है।
नालंदा मल्टीमीडिया संग्रहालय:
नालंदा मल्टीमीडिया संग्रहालय खुदाई वाली जगह के समीप ही है। यह निजी संस्था द्वारा चलाया जाता है। यहाँ पर 3-डी एनीमेशन और अन्य मल्टीमीडिया साधनों के द्वारा नालंदा के इतिहास को दिखाया जाता है।
नव नालंदा महाविहार:
यह एक नया बना हुआ शिक्षण संस्थान है जहाँ दूसरे देशों के छात्र भी पढ़ने आतें हैं। यहाँ बौद्ध धर्म और पाली साहित्य की पढ़ाई और शोध होतें है।
नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय:
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय को संचालन किया जाता है। यह संग्रहालय 1917 में खोला गया था। यहाँ नालंदा और राजगीर से मिली वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। विश्वविद्यालय की खुदाई में मिले अवशेषों को इसी पुरातात्विक संग्रहालय में रखा गया है।
यहाँ पर मौजूद चार दीर्घाओं में केवल 349 वस्तुओं को रखा गया है जबकी खुदाई में 13,463 वस्तुएं मिली थीं। इनमें बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान, तांबे की प्लेट, बारहवीं सदी के जले हुए चावल के दाने, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, तथा बर्त्तन भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है। भगवान बुद्ध की बहुत सारी मूर्तियाँ यहाँ पर देखने को मिल जाएगी।
नालंदा विपासना केंद्र: यह विपासना केंद्र नालंदा के खंडहरों से केवल 1 किमी दूरी पर एक सुंदर झील के किनारे पर स्थित है। यहाँ पर एक साथ करीब 50 छात्रों के रहने की व्यवस्था है। विपासना भारत की एक प्राचीन तकनीक है, जो मूल रूप से गौतम बुद्ध के द्वारा सिखाई गई थी। विपासना का अर्थ होता है कि “चीजों को उसी तरह से देखा जाए जैसी वे वास्तव में हैं”। यह आत्म-अवलोकन द्वारा आत्म-शुद्धि की एक प्रक्रिया है।
नव नालंदा महाविहार:
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सुझाव पर बिहार सरकार ने पुराने नालंदा विश्वविद्यालय की स्मृति में नालंदा के खंडहरों के पास ही 1951 में, एक नया नालंदा महाविहार स्थापित करवाया जो कि पाली और बौद्ध धर्म के लिए एक आधुनिक केंद्र तरह है। महाविहार का वर्तमान परिसर पटना के महानगर से लगभग 100 किलोमीटर दूर, ऐतिहासिक झील इंद्रपुष्कर्णी के दक्षिणी तट पर स्थित है।
इंद्रपुष्कर्णी झील के उत्तरी किनारे के पास ही नालंदा के प्राचीन विश्वविद्यालय के खंडहर हैं। नए नालंदा विश्वविद्यालय में छात्रों को पढ़ाने की शुरुआत 1 सितंबर 2014 से हुई। पहले वर्ष में यहाँ केवल 15 छात्र थे। विश्वविद्यालय परिसर 455 एकड़ भूमि में फैला हुआ है। भारत सरकार ने इस विश्वविद्यालय के लिए 2727 करोड़ देने का फैसला लिया है जबकी ऑस्ट्रेलिया, चीन, थाईलैंड और सिंगापुर जैसे देश भी इसकि आर्थिक मदद कर रहें हैं।
यह 2006 में एक डीम्ड विश्वविद्यालय बन गया है। भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्वारा नव नालंदा महाविहार को “डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी” का दर्जा दिया गया। इसके कुलपति डॉ. महेश शर्मा श्री प्रहलाद सिंह पटेल जो कि पर्यटन और संस्कृति राज्य मंत्री भी है, उपकुलपति प्रोफ. बैद्यनाथ लाभ हैं और अध्यक्ष पद पर श्री प्रहलाद सिंह पटेल हैं। नव नालंदा महाविहार की अपनी ऑफिसियल वेबसाईट भी हैं जहाँ से आप इसके बारे में और यहाँ पढ़ायें जाने वाले विषयों की जानकारी प्राप्त कर सकतें हैं।
नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय:
नालंदा विश्वविद्यालय (जिसे नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में भी जाना जाता है) एक अंतरराष्ट्रीय और अनुसंधान गहन विश्वविद्यालय है, जो भारत के ऐतिहासिक शहर, बिहार में स्थित है। यह 5वीं और 13वीं शताब्दी में प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार के लिए बनवाया गया है। इसके लिए संसद में एक अधिनियम पारित किया गया था।
2007 के पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में चीन, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मलेशिया और वियतनाम सहित एशियाई देशों के साथ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ने भी नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का प्रस्ताव दिया था। इस विश्वविद्यालय को भारत सरकार की प्रमुख परियोजनाओं में से एक के रूप में देखा जाता है।
इसे संसद द्वारा “राष्ट्रीय महत्व के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान” के रूप में नामित किया गया है, और 1 सितंबर 2014 को अपना पहला शैक्षणिक सत्र शुरू किया। शुरुआत में अस्थायी सुविधाओं के साथ इसे राजगीर में स्थापित किया गया था, पर वर्ष 2020-21 तक इसके 400 एकड़ के विशाल क्षेत्र में फैले आधुनिक तौर-तरीके से बने परिसर के बन के पूरा हो जाने की उम्मीद है। यह परिसर, पूरा होने पर, एशिया में सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में एक और भारत में अपनी तरह का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होगा।
विश्वविद्यालय के पहले कुलपति नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन थे, उनके बाद सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री जॉर्ज येओ यहाँ के कुलपति बने। नालंदा विश्वविद्यालय विशेष रूप से एक स्नातक विद्यालय है, जो अभी केवल मास्टर पाठ्यक्रम की पेशकश कर रहा है, पर 2020 से यहाँ धीरे-धीरे क्रमिक चरणों में पीएचडी कार्यक्रम भी शुरू हो रहे हैं। नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की भी अपनी ऑफिसियल वेबसाईट हैं जहाँ से आप इसके बारे में और यहाँ पढ़ायें जाने वाले विषयों की जानकारी प्राप्त कर सकतें हैं।
नालन्दा के आसपास
बड़गांव, सिलाव राजगीर:
यहाँ पास ही में बड़गांव, सिलाव और राजगीर नाम के पर्यटक स्थल भी है। ये तीनों जगहें भी अपने धनी इतिहास के लिए जानी जाती है। राजगीर जो की प्राचीन समय में राजगृह के नाम से जाना जाता था यहीं पास में ही स्थित है। यह प्राचीन मगध राज्य की पहली राजधानी थी।
प्राचीन महाग्रंथ “महाभारत” में भी इसका उल्लेख किया गया है। राजगीर में सन भंडार गुफ़ाएं, पीस पगोडा या विश्व शांति स्तूप, ब्रहमकुंड, वेणु वन जैसी बहुत सारी ऐतिहासिक धरोहरें देखने को मिल जाएगी। यहाँ पर पास ही में बड़गांव नाम के गाँव में एक प्राचीन सूर्य मन्दिर और सरोवर है जहां पर छठ की पूजा काफी धूम-धाम से होती है।
सिलाव नाम का गाँव भी निकट ही है जो “खाजा” के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। खाजा एक प्रकार की मिठाई है जो कि खाने में बहुत ही स्वादिष्ट होती है। खाजा बिहार की एकमात्र ऐसी मिठाई है जिसे भौगोलिक संकेत यानि की GI टैग मिला है।
विशेष उल्लेख:
पटना शहर के बेली रोड के पुनाइचक क्षेत्र में स्थित राजधानी वाटिका जिसे इको पार्क के नाम से भी जाना जाता है। इस पार्क में विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों की प्रतिकृति प्रदर्शित की गईं है।
इन प्रतिकृतियों को प्रख्यात डच मूर्तिकार डायना हेगन और दिल्ली के कलाकार संजीव कुमार सिन्हा द्वारा बनाया गया है। इन प्रतिकृतियों के माध्यम से प्राचीन बिहार के वैभव और गौरव को फिर से देखा जा सकता है। इको पार्क में लाखों लोग घूमने के लिए आतें हैं इन को यहाँ देखकर उनका रुझान भारत के इतिहास में और भी ज्यादा बढ़ जाएगा।
तो यह थी विश्व भर में प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय की करुण कहानी। भारत प्राचीनकाल में सोने की चिड़िया कहलाता था पर विदेशी आक्रमणकारियों ने सब कुछ लूटकर आज इसकी क्या स्थिति कर दी है। क्या आपने कभी सोचा है की अगर ये विश्वविद्यालय अभी भी सही हालत में होता तो बिहार का शिक्षा के क्षेत्र में आज क्या स्थान होता?
अगर आप भी अपने गौरवशाली इतिहास की एक झलक देखना चाहतें हैं तो एक बार बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय जरूर आइए।